हम जाति को कितना भूल सके हैं?

उसकी उम्र रही होगी यही कुछ चौबीस – पच्चीस साल! उसकी सांवली सूरत पर इस अवस्था के अनुरूप रहने वाली चंचलता के स्थान पर गम्भीरता बैठी रहती है। वह लोगों के घर – घर जाकर उनकी गाड़ियां साफ करता है। मुझे उसका नाम नहीं मालूम। अधिकतर लोग, जिनके घर वह रोज सुबह जाता है, वे भी शायद ही उसका नाम जानते होंगे। कम ही सम्भावनाएं है कि कोई उसे उसके पहले नाम से पुकारता हो। उसकी भाव – भंगिमाएं और शारीरिक भाषा साफगोई से बयां कर देती है कि समाज ने उसके साथ कैसा बर्ताव किया होगा! वह बहुत धीमे स्वर में बात करता है। उसे कितना भी डांट दिया जाए या अपशब्दों से अपमानित कर दिया जाए, वह लगभग जड़ खड़ा रहता है। वह भूल से भी किसी घर के दरवाजे के भीतर प्रवेश नहीं करता। यहां तक कि लोगों के हाथों से चाबी लेते समय भी वह पुरजोर कोशिश करता है कि उसका हाथ कम से कम ही दूसरे व्यक्ति के हाथ को छुए। इतना ही नहीं, वह बात करते समय भी सामान्य से अधिक दूरी बना कर रखता है।
ऊंची जाति वाले धनवान सयानों ने उसके घर के भीतर आ जाने पर अथवा गाड़ी के अलावा कुछ और स्पर्श कर देने पर उसे कितना दुत्कारा होगा, आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। सभ्य समाज के इस व्यवहार ने उसे जड़ बना दिया है। वह उस वर्ग का सदस्य है, जिसे रोज गाहे – बगाहे हम और आप उसकी जाति याद दिला देते हैं। उसे देख कर, गांव की वह अधेड़ औरत याद आ जाती है, जो आंगन पर सूरज की पहली किरण पहले पड़ने से पहले सड़क पर झाड़ू बुहार देती थी। बुहारने से अधिक उसे यह ध्यान रखना होता था कि रास्ते में आने वाले किसी भी व्यक्ति को वह या उसकी झाड़ू छू कर ‘अपवित्र’ न कर दे। मंदिर हो, सामूहिक भोज हो अथवा कुएं की पाल, वे किसी भी क्षण स्वयं को अपनी जाति से मुक्त नहीं कर पाते होंगे।
गांव – ढाणियों की उस जीवन शैली से परे, आज शहरी दिनचर्या के बीच भी हम जातियता को कितना भूल सके हैं? आज, किसी व्यक्ति को जातिसूचक शब्द से अपमानित नहीं किया जा सकता, उन्हें मंदिरों और सार्वजनिक स्थानों पर आने से रोका नहीं जा सकता, क्यूंकि यह कानूनन अपराध है। लेकिन कानून की सीमाओं के इतर, हम आज भी मन से उन्हें कितना स्वीकार कर सके हैं? दफ्तर में यदि कोई ऐसी जाति का व्यक्ति हमारा वरिष्ठ बनकर आ जाए, तो उसकी जी – हुजूरी करना हमारी विवशता हो जाती है। इसे परिवर्तन नहीं माना जा सकता। लेकिन क्या घर लौटने पर वह हमारे उपहास का विषय नहीं बनता? बड़े शहरों में जातियता के बंधन जरा – से ढीले भले ही पड़ गए हों, लेकिन आज भी बने हुए हैं। हमारी संकुचित मानसिकता इंसान को उसकी जाति से पहचानने की आदत से आजाद नहीं हो सकी है। ना मालूम, ऐसा हो पाने में कितने बरस और लगें? यदि न्याय जैसे किसी शब्द का अस्तित्व है, तो दो ही भावी स्थितियां सम्भव हैं – या तो हम स्वयं को जाति बंधनों से मुक्त कर लेंगे अथवा इस शोषण की अनवरत कहानी के अगले हिस्से में दुत्कारे जाने की बारी हमारी होगी।

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