भेड़ नहीं बनने की कसमसाहट

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तुम एक बुझी हुई राख हो
ठण्डी और काली राख
या इसके भीतर, किसी परत के नीचे अब भी शेष हैं किसी चिंगारी के अवशेष?
जिंदा है कोई तपिश, जो कह जाती हो कि जलता था यहां कुछ, कभी?

तुम में साहस के कुछ कतरे हैं
जो निरन्तर दब्बू बनते जाने की कवायद के बीच, कुछ अन्तरालों में
मौजूद हैं अब भी, शायद
शायद शब्द का उपयोग, इस समय की मांग है और कविता की भी।

तुम्हे भेड़ बन जाना चाहिए था अब तक
और चले जाना चाहिए था दूसरी भेड़ों के पीछे, कतार में
भेड़ नहीं बनने की यह कसमसाहट मारक है
लेकिन, मारती भी नहीं है पूरी तरह।
तुम अपने अस्तित्व से जुड़ी पीड़ाएं लेकर भटकते हो
रामायण के राजा दशरथ की तरह, जो अनजाने में किसी श्रवण कुमार की हत्या के उपरान्त
यूं व्याकुल रहने को अभिशप्त है।

जीवन तुम्हारे सामने बिछा है, शतरंज की मानिंद
तुम से अपेक्षाएं हैं कुछ बेहतर चालों की
और आखिर में शह और मात दे देने की।

तुम क्यूं नहीं याद रख पाते कि प्यादा एक कदम चलता है और घोड़ा ढाई?

तुम ने जीवन को महसूसा है किसी कोरे कैनवस की तरह
जो कुछ अनाम रंगों से भरे जाने की प्रतीक्षा में है
क्या रंग केवल वही बारह, चौदह अथवा सोलह हैं, जो अब तक देखे और माने गए हैं?

तुम्हारे रंग कच्चे होने देना, हो तो
पुराने रंग मत रचना।

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